Friday, May 06, 2016

चाँद! तुम तरल हो रहे हो

चाँद !
तुम रुई-सा मुलायम
और पानी-सा
तरल हो रहे हो
गीली मिट्टी जैसे
धीरे धीरे सरकना
सीख लिया है ।
उष्ण रातों में
मंद मीठी पछुआ वयार की नाईं
शीतल सिलवटी गालों पर
एक सुखद एहसास की
नजरें फेर देते हो ।
धुप का धुआं जैसे
दीपक की लौ से लिपटकर
अपना अस्तित्व बोध
खोने लगता है
मेरा मृदुल शुन्य
तुम्हारे विराट में
शनैः शनैः घुलने लगा है ।

तुमने  कोमलता, निर्भीकता 
पाताल की गहराई और
सागर का विस्तार कैसे पाया?
एक बात मुझे भी समझाओ (समझाओगे?)
फूलों की लालिमा-सी शर्म
जीवन की गहरी धुंध में भी
हँसते-हँसते वक़्त को 
कुरेदना,
अट्टहास करना,
बरसते बादल को एकटक
शांतचित्त कोने में छुपकर
निहारना
कहाँ से सीखा ?
शक्तिपुंज की तरह
चतुर्दिश सुख की
मखमली चादर फ़ैलाने का
गुण कहाँ से पाया ?

तुमको शायद समय ने 
स्त्रीत्व सीखा दिया 
और मैं ?
समय को पकड़ने की चाह में
कई हिस्सों में बंटता चला गया
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

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M K Mishra