अश्क बहकर भी कम नहीं होते
ये आँख कितनी अमीर है,
इन हवाओं को कुछ कहा भी नहीं, खुशबू फैल गयी
ये मैं नहीं, पागल समीर है.
दर्द कुतरता है मेरे अंतर को
कागज की नाव अब पुरानी है
बह गयी है बस्ती वज़ूद की इस बारिश में
बची है जो अब, कहानी है.
तस्वीर कल की उलझी-सी है, धुंधली है
दरख़्त खामोश है, रात गहरी है,
हुआ जो कल था वादा हौसले से
आज कोने में, वो भी चित्त पसरी है.
समेट लाता हूँ जीवन के बिखरे पन्नों को
उसी चादर में, जो आज मैली है
शब्द छोटे हैं, बात बड़ी है दुनिया की
खामोशी-सी, भावों की तरह, दूर तक फैली है.
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा