Wednesday, August 15, 2012

ये आईना बेकार है

हम तो ऐसे थे नहीं
ये आईना बेकार है
इन नम आखों को क्या खबर
मन आज क्यूँ बीमार है.

झुक जा तू आज ये आसमाँ
सीने का राज खोल दूं
सिर का भारी ताज भी
मैं कौड़ियों में तोल दूं.

तन से लिपटी काया
और मोह की ये माया
रूप की ये दौलत
और शान का ये चोला
मैं और तू का मेला
और पास बैठी शौकत
इनका मोल कितना है?

पूछा उस सड़क के
भूखे भिखारी से
जिसने जिंदगी को
पास से सूँघा है, छुआ है.
उसकी ज़ुबान तो सिर्फ़
रोटी की गंध जानती है.

उसने कहा "तेरे सोने की
कीमत तू ही जानता है
मुझे तो बस एक रोटी की दरकार है
और बाकी सब बेकार है."

बस उसकी बात सच्ची है
जो गंध पहचानता है
जो भूख जानता है
जो स्वयं को जानता है
पर पहचानता उनको नहीं
जो बेबस और लाचार हैं
जो बरसों से बीमार हैं
जिनकी राह मनमानी है
अरे! ये तो अंतहीन कहानी है.


कहते हैं
आईना झूठ नहीं बोलता
सीने का राज नहीं खोलता.
सच और झूठ का फ़र्क मैं नहीं जानता.
जो जानते हैं, ज्ञानी हैं.

कुलबुलाने दो इन बातों को
अपने मंदिर के अंदर ही

अब देवता इन बातों के
कर गये हैं प्रयाण
चमड़ी अधिक घिसने से
रंग गोरा नहीं होता.

..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

4 comments:

  1. आत्माभिव्यक्ति के माध्यम से आपकी यह कविता अपने आप मे बेजोड है। यह तो बिहारी की मानिंद `देखन मे छोटे लगें घाव करैं गंभीर, की उक्ति को चरितार्थ करती है।आपने जिन बेमिशाल बिंबो का गुफंन कर अपने पक्ष को हमारे चितंन हेतु प्रस्तुत किया है वह सराहनीय तो है ही साथ ही आपका ये तरन्नुम हमे कुछ करने हेतु प्रेरित करता रहेगा
    दिनेश त्रिवेदी बालासोर ओडीशा

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  2. मैं आपके विचार का सम्मान करता हूँ. उम्मीद है आगे भी अपना स्नेह बनाए रखेंगे.

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  3. Kitne saf aur saral sabdo me bahunt kuch kah diya is kavita ke madyam se sir aapne .aage bhi in sab se rubru hote rahun yahi aasha rakhata hun.thanks sir

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  4. Thank you very much Chandrashekhar for your response.

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M K Mishra