Monday, September 16, 2013

एक शिक्षक की चाह

सुबह की किरणें रोज़ नई उम्मीद जगाती हैं. परंतु शाम ढलते-ढलते ऐसा प्रतीत होने लगता है मानों समुद्र के रेत पर बना बच्चों का घरौंदा लहरों में विलीन होने लगा हैउम्मीद की लकीरें रोज़ उभरती हैं और रोज़ धूंध में समा जाती हैहर दिन एक नई जिंदगी जीता हूँ  और हर रात इसे दफ़न करता हूँजिस दिन ज़बरदस्ती नयेपन का एहसास किया, मन  का पुराना भूत घुमड़ता हुआ प्रेस रिपोर्टर की नाईं घेर लेता है. निरुत्तर होकर एकांत साधना के सिवा उपचार नहीं बचता.

 मैं एक शिक्षक हूँबच्चों का उनके उन्नति क्रम में मार्गदर्शन करना मेरा धर्म है. रोज सुबह यह सोँचकर स्कूल जाता हूँ कि आज कुछ खास करके लौटूँगापर जो सोचता हूँ, वह कर नहीं पाता और जो करता हूँ उसे सोचा नहीं थाजिस दिन मन की कर लिया, उस दिन बेचैन आत्मा गहरी सांस के साथ  राहत महसूस करती हैपर ऐसा हर रोज़ नहीं होताजब भी बच्चों के साथ उनकी कक्षा में होता हूँ, लगता है अपने दिमाग़ के तंतुओं को उनके दिमाग़ के साथ जोड़ दूं.   भौतिक रूप से पर ऐसा संभव नहींकुछ सजग छात्रों को छोड़ दें, तो शेष की आँखों में एक शून्यता  का भाव मुझे विचलित करता है.  चाहता हूँ कि उनके ज्ञान की सीमाओं को विस्तृत कर दूंचाहता हूँ कि उनकी संवेदनाओं को कुरेदकर उसमें अपनी मुखरता की कुछ उर्बरा डाल दूंचाहता हूँ कि उनके उड़ान की सीमाओं को फिर से परिभाषित करूँचाहता ये भी हूँ कि उनके दुर्गुणों को नीलकंठ की भाँति पी जाऊँ.  काश, मैं ऐसा कर पाता !  इन विचारों का बोध ही पीड़ादाई बन गयी है.

दिन दिन निरर्थका में बीतता जा रहा हैअगर कुछ सार्थक होता भी है तो वो दूसरे समझते हैंमैं नहींहमारी समझ तो बदली की ओट में समाई हुई सी लगती है.

 कभी किसी ने हमें अगर सराह दिया तो आखों पर कलई चढ़ जाती है और आलोचना पर आत्मा विवेचना करने लगता हूँये मानव की कमज़ोरी हैऔर मैं कोई महमानव तो हूँ नहींमैं भी उसी प्रजाति का एक हिस्सा हूँ जिसके दो आँख, एक अन्वेषी  मस्तिष्क और एक रक्ताभ हृदय हैइसकी धमनियों में रक्त संचार भी होता है.  

हाय रे मानव ! मारता है तो विद्रोह से और मरता है तो आँखें मूंदकर !  तेरी विवेचना समझ और शब्दों से परे है.

हमारे मित्र ने एक सुबह अपनी साफ़गोई में स्वयं को सहृदय और निश्छल जताने की भरपूर कोशिश कीमैने उनसे सहृदयता और निश्च्छालता को मापने का पैमाना पूछ लिया. उनका अपना तर्क था और मेरी अपनी दलीलहाँ, हम दोनो समझदार थे सो तर्क-कुतर्क बक्से में बंद करके अपनी- अपनी राह ली  जैसे दो भैंसे आमने-सामने आने पर पहले उपर सिर उठाकर आँखें तरेरते हैं, पैर खुरचते हैं और फिर  एक दूसरे की ताक़त का अंदाज़ा लगा लेते हैं. और अगर भाँप लिया की प्रतिद्वन्द्वी बराबरी का है तो विपरीत दिशा की ओर रुख़ कर लेते हैंइस प्रसंग का हश्र भी कुछ ऐसा ही हुआ.  हम दोनों अगले दिन उसी गर्मजोशी से मिले जैसे कल कुछ हुआ ही न था.

जो मन कहता है वह कर नहीं पाता और जो करता जा रहा हूँ उसे मन स्वीकारता  नहीं. दोनों में सामन्जस्य बिठाना चुंबक के उत्तरी और उत्तरी ध्रुब को पास रखने जैसा हो गया है.  

इन दिनों मन में एक अपराध  बोध जैसा गहरा जख्म बनता जा रहा है.  ये ज़ख्म धर्म, कर्म और मन के अन्तर्द्वन्द्व की उपज हैइसकी जड़ धीरे-धीरे गहरी होती  जा रही हैऔर मैं बेबसकुछ भी सार्थक कर सकने में विवश ! 

विवशता बहुत बड़ा शाप है. इससे मुक्ति के लिए शायद दधिचि की हड्डियाँ चाहिए. और मैं वो कहाँ से लाउँ ? इसका प्रयोग तो  देवों ने पहले ही कर लिया है.

बस इसी उम्मीद में जिए जा रहा हूँ कि कल की काल्पनिक सुबह कुछ नएपन का भान कराएगी और एक सुखद बदलाव होगा.  

ये उम्मीद ही अब हमारी धरोहर हैऔर मैं इसका रक्षक !
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

Friday, September 06, 2013

कलम की आबरू अब तेरी भी है, मेरी भी

बहाता रोज ख्वाबों को नदी के धार में जाकर
हमारा एक खिलौना है, वही है बंदगी मेरी.

कुलबुलाते बगुले हैं  इस रात में अब भीग कर
चोंच का तिनका भी चुप है नींद के आगोश में.

कुएँ का बरगद भी अब समझदार है हो गया
हौले से झुलाता है परिंदों के घरौंदों को.

हमारी साख-ए-खिदमत इतनी है कि तुम भी हो औ' मैं भी हूँ
ये चाँद की परछाई है, दिन में नज़र नहीं आता.


मंदिर वही नहीं मन्नू जहाँ हम रोज़ जाते हैं
इबादत उनकी भी करना जो मंदिर जा नहीं सकते..

कलम की आबरू अब तेरी भी है, मेरी भी
इधर से तुम अभी निकलो उधर से मैं निकलता हूँ.
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

Sunday, September 01, 2013

हर शख़्स इस शहर का बीमार नज़र आता है क्यूँ

हर शख़्स इस शहर का बीमार नज़र आता है क्यूँ
ठीक करने के लिए एक सिद्ध मंत्र चाहिए.

 

दरख़्त चौराहे का अब रात में सिर धुनता है

कैसे कहूँ कि आज उसकी जड़ भी  खोखली हो गयी.


फुग्गे नज़र आते नहीं अब बच्चों के बाज़ार में

कल एक अमीर आदमी इनको खरीद कर ले गया.

 

समंदर की भूख ने सब केंकड़ों को खा लिया

रेत पर रेंगता वही आदमी नज़र आता है अब.

 

अंधेरी रात का सिपाही अपनी नींद में बेसुध है

कौन जाने उस गली में कल फफक कर रोएगा.

 

जगाना चाहती अब माँ नहीं अपने बंशीलाल को

फिर चिपककर रोएगा वो पहर भर बेहाल कर.

 

आँखें आज सुर्ख़ हैं कल रात भर सोया नहीं

तकिया छुपा के आया हूँ कि बेटी भी न जान ले.

 

इस उफनती दरिया के शैलाब में आक्रोश है
पल दो पल की बात है कल फिर किनारे मिलेंगे.
 

..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा