हमारा एक खिलौना है, वही है बंदगी मेरी.
कुलबुलाते बगुले हैं इस रात में अब
भीग कर
चोंच का
तिनका भी चुप है नींद के आगोश
में.
कुएँ
का बरगद भी
अब समझदार है हो गया
हौले से झुलाता है परिंदों के घरौंदों को.
हमारी साख-ए-खिदमत इतनी है कि तुम भी हो औ' मैं भी हूँ
ये चाँद की परछाई है, दिन में नज़र नहीं आता.
इबादत उनकी भी करना जो मंदिर जा नहीं सकते..
हमारी साख-ए-खिदमत इतनी है कि तुम भी हो औ' मैं भी हूँ
ये चाँद की परछाई है, दिन में नज़र नहीं आता.
मंदिर वही नहीं
मन्नू जहाँ हम
रोज़ जाते हैं
कलम की
आबरू अब तेरी
भी है, मेरी
भी
इधर से
तुम अभी निकलो
उधर से मैं
निकलता हूँ.
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा
Superb Sir...Trying to understand the depth of words.. Keep writing...
ReplyDeleteShribhaskar