Friday, September 06, 2013

कलम की आबरू अब तेरी भी है, मेरी भी

बहाता रोज ख्वाबों को नदी के धार में जाकर
हमारा एक खिलौना है, वही है बंदगी मेरी.

कुलबुलाते बगुले हैं  इस रात में अब भीग कर
चोंच का तिनका भी चुप है नींद के आगोश में.

कुएँ का बरगद भी अब समझदार है हो गया
हौले से झुलाता है परिंदों के घरौंदों को.

हमारी साख-ए-खिदमत इतनी है कि तुम भी हो औ' मैं भी हूँ
ये चाँद की परछाई है, दिन में नज़र नहीं आता.


मंदिर वही नहीं मन्नू जहाँ हम रोज़ जाते हैं
इबादत उनकी भी करना जो मंदिर जा नहीं सकते..

कलम की आबरू अब तेरी भी है, मेरी भी
इधर से तुम अभी निकलो उधर से मैं निकलता हूँ.
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

1 comment:

  1. Superb Sir...Trying to understand the depth of words.. Keep writing...

    Shribhaskar

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M K Mishra