चाँद! तुमको क्या मालूम
कि तेरी रोशनी में
नहायी
ये आधी जिंदगी
शीतलता की छाँव में
अनवरत
अनंत विथियों से
सूरज के रथ पर
सवार होकर
संपूर्ण सृष्टि की
एक झलक पाना चाहती है.
चाँद! तुमको क्या मालूम
कि तुम्हारे स्पर्श से
स्पन्दित
ये आधी जिंदगी
घुप्प अंधेरे में
दीपक की लौ के
इर्द-गिर्द, पतंगे की मानिंद,
संपूर्ण मानवता की
खुशी के लिए
एक उज्ज्वल प्रकाश की
तलाश करना चाहती है.
चाँद! तुमको क्या मालूम
कि तुम्हारे होने से
उल्लासित
यह संपूर्ण जीवन
आशा और निराशा के
मंथन-भंवर से
उत्प्लावित
तेज बहाव में
प्राणपन से जूझता
साँसों का संघर्ष
एक गरिमामयी
सार्थक अर्थ
तलाश करना चाहता है.
अगर कभी तुमको पता चले
तो मुझे भी बताना
कि मेरा भाव का संसार
कितना छोटा
किंतु मधुर है.
किंतु मधुर है.
तुम्हारी धवल रश्मियों से
मेरा अंतरतम प्रफ्फुलित
और प्रसन्न है
जहाँ से क्षितिज के पार का
लोक भी दृश्य है
और धरा की विहंगम
कलायें भी...........रचना © मनोज कुमार मिश्रा