Thursday, May 28, 2015

चाँद! तुमको क्या मालूम?

चाँद! तुमको क्या मालूम
कि तेरी रोशनी में
नहायी
ये आधी जिंदगी
शीतलता की छाँव में
अनवरत
अनंत विथियों से
सूरज के रथ पर
सवार होकर
संपूर्ण सृष्टि की
एक झलक पाना चाहती है.

चाँद! तुमको क्या मालूम
कि तुम्हारे स्पर्श से
स्पन्दित
ये आधी जिंदगी
घुप्प अंधेरे में
दीपक की लौ के
इर्द-गिर्द, पतंगे की मानिंद,
संपूर्ण मानवता की
खुशी के लिए
एक उज्ज्वल प्रकाश की
तलाश करना चाहती है.

चाँद! तुमको क्या मालूम
कि तुम्हारे होने  से
उल्लासित
यह संपूर्ण जीवन
आशा और निराशा के
मंथन-भंवर से
उत्प्लावित
तेज बहाव में
प्राणपन से जूझता
साँसों का संघर्ष
एक गरिमामयी
सार्थक अर्थ 
तलाश करना चाहता है.

अगर कभी तुमको पता चले
तो मुझे भी बताना
कि मेरा भाव का संसार
कितना छोटा 
किंतु मधुर है.

तुम्हारी धवल रश्मियों से
मेरा अंतरतम प्रफ्फुलित
और प्रसन्न है
जहाँ से क्षितिज के पार का
लोक भी दृश्य है
और धरा की विहंगम
कलायें भी.
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

Sunday, May 17, 2015

तुम कौन हो?

अतीत के बिखरे पन्नों पर
इतिहास का अर्थ ढूँढना
अगर इतना दुरूह न होता
तो हर मानव अपनी छवि की
एक सीधी परछाईं होता
जिसका रूप अनंत क्षितिज में
परिचित कल्पना की
एक सुंदर छायावृती होती.

आज हम अपने चेहरे की आकृति
औरों के आईनों में ढूँढने को बेबस है;
और सार्थक को भी निरर्थक मानकर
अपनी आत्मा  को दुत्कार देना
हमारी सहज प्रवृति
जो गूंगी होकर भी उँची आवाज़ में
कुछ इस तरह बोलती है
जैसे तलवार की धार से
लटकती हो लहू की दो बूँद

तब ऐसे में हमसे कोई ये पूछे
की तुम कौन हो?
और किसकी तस्वीर हो?
हमारे पास जवाब के लिए
अब क्या बचा है---
सिर्फ़ दो सजल नेत्र
जो बेजुवान किंतु सार्थक
शब्द बोलते है
जिसकी अपनी भाषा है
और अपनी सीमाएँ.

काश! उनकी भाषा का
संवेदनात्मक पहलू भी
कोई समझ पाता
और अर्थ को अर्थ के सापेक्ष में
मौन समझ जाने की
गहरी अनुभूति होती
तो हम भी
एक क़हक़हे के साथ कहते
कि मेरी पहचान को पहचानने वाला
इस विराट शून्य में कोई तो है
जो इन विसरित बूँदों की वेदनाओं को
आत्मसात कर लेना
अपनी नियति मानता है
और अपने स्व को तिरोहित करके
एक नया इतिहास बनाना
अपना आदर्श!
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

Friday, May 08, 2015

मन की अभिलाषा गीत बन गयी

न जाने कौन हमारी खुशी की चुपचाप दुआएँ करता है
असर इतना कि अश्कों को भी हँसी-खुशी से भरता है

न जाने कौन हमारे क्रंदन को भी अपनी दौलत कहता है
असर इतना कि चिथड़ों में भी शहंशाह-सा रहता है

न जाने कौन राह के कांटो को भी चुपके-चुपके चुनता है
असर इतना कि झंझावात में स्वप्न हिंडोले बुनता है

जाने कौन हमारे पन्नों में रोज नया रंग भरता है
असर इतना कि जीवन ही अब इंद्रधनुषी लगता है

न जाने कौन हमारे सपनों को एक कौतूहल-सा गढ़ता है
असर इतना कि साँझ-सबेरे सूरज यहाँ भी चलता है

चल हमें भुलावा देकर ले चल, चाँद जहाँ पर आता है
जीवन उठता-गिरता पथ पर नीरव चैन न पाता है

मन की अभिलाषा गीत बन गयी नयन बन गये हैं अनिमेष
कल की उद्वेलना आज सो गयी और नहीं कुछ रहा शेष
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा