Monday, November 02, 2015

चाँद! तुम हर रोज आना

चाँद कल रात मेरी खिड़की से
फिर झाँक रहा था
कुछ कहने की कोशिश में
मेरी तरफ चुपचाप टकटकी लगाए.
काल के चक्र ने मुझे
चैतन्य कर दिया.
उसकी हल्की मुस्कान
वर्षों पुरानी उस इमारत की याद दिला दी
जिसके कंगूरे पर चढ़कर
एकांत में उससे कुछ पल
अपने मन की बातें की थी.
हमारे एकांत की उम्र अब बड़ी है.

जीवन हमें घसीटकर 
बहुत दूर ले आया है.
फिर भी हम ठूंठ पेड़ की नाईं 
झंझावतों को चिढ़ाते हुए
निर्भीकता से खड़े हैं
सड़क पर पड़े उस भिखारी की
दाढ़ी में रेंगती जूँ की तरह
जो लाख कोशिशों पर भी अपना
अस्तित्व खोने को तैयार नहीं.

समय का फेनिल प्रवाह 
अब मुझे चिढ़ाता है,
कल की याद दिलाता है.
असीम जलधारा के प्रबल वेग में
अकेला धकेल देता है.
मैं निडर मछुआरे की तरह
रात के घुप्प अंधेरे में भी
तैरने को तैयार हूँ
वर्षों पहले की तरह.

चाँद! तुम हर रोज
हमारी खिड़की पर आना
बातें करना
थोड़ा मुस्करना !
कल सुबह गली के बच्चे
जब किलकारी मारकर
खुशियाँ मनाएँगे
तो दुनियाँ खुद-व-खुद
जान जाएगी क़ि तुम्हारा आना
और अपनी स्मृति छोड जाना
कितना सुखद और रोमांचकारी 
रहा होगा ढलती निशा के 
सुखद स्वपनों के साथ !    
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा                 

No comments:

Post a Comment

Dear Readers
Your comments/reviews are most honourably solicited. It is you whose fervent blinking keep me lively!

Regards

M K Mishra