Wednesday, July 13, 2016

हम हकीकत जानते हैं.......

थक गये रिश्ते चलकर बहुत? उन्हें आराम दे दो
वासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।

ख्वाहिशें जलती रहीं सुनसान दर पर इस तरह
न हम किसी के हो सके न कोई हमारा हुआ।

लड़ लिया खुद से बहुत अब और ना हो फासला
जीत कर ही खो दिया सब, हारने का क्या गिला।

साफगोई कभी ऐसी है कि हँस के भी रो देते हैं
किस्मत का खेल है कि पा कर सब खो देते हैं।

कभी बिखर के उग जाऊँ तो ना कहना स्वार्थी
जग के संभाला हैं आँखों में बीज एक मेहराव की।

हम हकीकत जानते हैं वृक्ष के फैलाव का
हौसले में लिपटी है बहती गति सैलाब की।

..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

बारिश से वार्ता

बारिश !
तुम्हारी बरसती बूंदों ने
देखो ये क्या कर दिया !

चिड़ियों का घोसला
उनका पंख, उनकी चोंच
गीला कर दिया
उनके पेट पर
पत्थर रख दिया
कीट-पतंगों को
निःशक्त बना दिया ।
चीटियों को ऐसे बहा ले जा रहे हो
मानों ताल में निर्वाध तैरती है
कागज़ की छोटी नाव !

गलियों में, घरों में, मुहल्लों में,
देहरी पर तुम्हारा आतंक
चहुंओर विद्यमान है !

तुमने देखी है उन आँखों को
जो कई रातों से उनींदी हैं?
नहीं न ?
उनमें तुम्हारी बूंदें पथरा गयी हैं !
क्यों घूम फिर कर उसी गली में
पागल प्रेमी की तरह जमे हुए हो?
बरसना ही है तो वहाँ बरसो
जहाँ कोमल कलियाँ
सर पटक-पटक कर
तुम्हारा राह देख रही हैं ।
तुम्हारा इंतजार ये निराश पेड़
गुम हुए सगे के वियोग की नाईं
एकांत मौन में कर रहे हैं ।

बरसना ही है तो नदियों में,
झीलों में, खेतों में, सागर में,
मुद्दत से सूने पड़े मन में
बरसो न झूम कर ।

तुम्हारे इतराने ने
हमारे अजीज को सड़क पर
बेनूर बना दिया है ।

तुम तो हठी बाला हो
वही करोगे जो मन कहेगा।
तुमने किसी की सुनी है
जो मेरी सुनोगे?

अरे !
बूंदों की रफ़्तार थमने लगी।
बदली की ओट से
देखो सूरज झांकने लगा।
डूबी बस्ती में जिजीविषा का
कोलाहल तैरने लगा।
जीने की चाह ने
फूटे छप्पर पर
हलचल की नींव रख दी ।

हम आज को
कल के भरोसे नहीं छोड़ सकते।
जीने की मुमूर्ष अभिलाषा ही
मानव की पैनी शक्ति है
जहाँ निर्माण और विध्वंश
दोनों की अविरल गति
साथ-साथ अठखेलियां करती हैं ।

..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

Thursday, June 09, 2016

अद्भुत है भारत तेरी विरासत!

आज भीख मांगने वाली एक नन्हीं बाला को इलाहाबाद के यमुना नदी में एक रूपये का सिक्का बड़ी श्रद्धा से डालते देखा।
बात ये नहीं कि उसने नदी में सिक्का डाला।
बात है, बड़ी जतन से जमा किया धन का मोह त्याग !
तिल-तिल मरना पड़ता है एक-एक सिक्के के लिए। 
अपना जमीर मारना पड़ता है दूसरों के आगे हाथ फैलाने में। 
और फिर भी माया का दान बिना प्रतिदान की इच्छा के? निःसंदेह स्पृश्य है!
हर क्षण हम जिसे जोडते जाने की तमन्ना में समग्र सांसारिक कुचक्रों का जाल बुनते जाते हैं, उसका त्याग !
हे ईश! तुमने इतनी शालीनता उसकी चुप्पी में क्यों भर दी है?
उसका जटिल मौन उद्वेलित करता है।
काश! हम स्वनाम धन्य जन उसकी विराट सहनशीलता को भावो से स्पशॆ कर पाते ?
अद्भुत है भारत तेरी विरासत!

..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

शेष होती है तो जीवन की सांसें............

जीवन अतृप्त से शुरू होकर अतृप्त पर ही समाप्त हो जाने वाली वृक्ष गाथा है। कहाँ से शुरू होकर कहाँ खत्म होगी इसका भान तक नहीं हो पाता। 
अगर हुआ भी, तब तक काया जीणॆ हो चुकी होती है। जीवन वीथि पर मोह अपने अंक में इस तरह जकडे रखती है कि हम ये जान नहीं पाते हमारा ध्येय क्या है।
सांसें हमें जिस राह खिंचती जाती है, हम खिंचते जाते हैं ।
चाह कभी शेष नहीं होती। शेष होती है तो जीवन की सांसें............
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

Monday, June 06, 2016

आज स्थिर है शैव बनकर

तपती दोपहरी में
बादल के किसी कोने से
स्पर्श की स्पंदित बूँदे
अनायास ही
रोम रोम गीला करता है।
उच्छवास
तरंगित जीवन गाथा का
एकांत गीत से
झंकृत है।
तन का मोह
मन की माया
सब तुम्हारी
दहलीज पर
रखकर खाली हाथ
लौट आया।
इसे सम्मान से
समेटकर कहीं
बंद कोठरी मे
कल के लिए
सहेज लेना
जीवंतता की
धरोहर होगी।
कौन जानता है?
आज का बीज
कल अंकुरित होकर
वृक्ष न बन जाय !
कौन जानता है?
सुवासित कन्दराओं में
पत्थरो का सीना चीरकर
किंचित कोई फूल
हँस न दे !
आँख की बूँदों का भार
नदी में बहती रेत है;
तल में चुपचाप
सरकती जाती है।
मौन तृष्णा भटक कर
संवाद में अर्थ की
परिभाषा तलाशने
लगती है।
हम कल की तस्वीरों में
रंग भर रहे हैं;
आज स्थिर हैं
शैव बनकर
शीतल शिलाओं पर
गहराती संवेदनाओं में
धर्म का मर्म
समेटे हुए।
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

Tuesday, May 31, 2016

आसां नहीं होता दामन बचाना

कहाँ सज्दे में सर झुके तुम्ही कह दो  तो अच्छा है
मेरी आंखे तो झुकती हैं हर नम आंखों को देखकर।

तेरे रूखसार की रोज बंदगी मेरे शय में अब भी शामिल है
जिस हाल में हों मुस्कराया तेरी नूर-ए-रहमत देखकर ।

बहुत ही मुश्किल है जनाजा उठाकर फिर सुला देना
आसां नहीं होता दामन बचाना मज़हबी हंसी देखकर ।

तेरे शहर में कैसे सो जाऊँ जमीर अपनी टांगकर
क्या गुजरेगी उन फकीरों पर हमको नशे में देखकर ।

बिखर के जीना औ' जी कर बिखरना आसां नहीं है मन्नू
तंज कसते हैं बेवजह लोग मुफलिसी रूखाई देखकर ।

समेट लाता हूँ अपने दामन में उधार की कुछ बची नज्में
कल हों न हों कह नहीं सकते हालात-ए-मंज़र देखकर ।

बहुत जी लिया यहाँ रफ़्तार-ए-नब्ज गिन-गिन कर
कि मर भी नहीं सकते खुदाया आहट तेरी देखकर ।

मिला है खाक में नफरत अदब से दरिया और दरख्तों का
साहिल को किनारे जाने दो लहरों का कलंदर देखकर ।
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

अधूरा सपना


सुबह की बारीश ने
घोल दिया अधूरा सपना ।
उनींदी आँखों में
चुप्पी उतरने लगी
सूरज के साथ-साथ ।
अधूरी कहानी गीली घास पर
रेंगती ईल्ली-सा
अपना मुकाम ढूँढती है।

अनजान चेहरे बिदककर
गहराती आद्रता में
अपना ठौर तलाशने
आहव्लादित पतंगों-सा फुदकते हैं
इधर-उधर जलती लौ के इर्द-गिर्द ।

सपना खो गया है ।
नींद अधूरी है ।
नीम का गीला गाल
आईने में नहीं समाता
शीशम तिरोहित है
वृक्षों की सभाओं में
आम गुमसुम है भीगकर
मासूम बादल के नीचे
अगली रात का इंतजार
चाँद के साथ बाकी है
कि सपना पूरा हो
घरौंदो में मढ़े रोशनदान-सा
कि हवा आती-जाती रहे
स्वछंद बच्चों की किलकारी जैसी ।
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

Monday, May 23, 2016

जीवन अगर क्षितिज होता

जीवन अगर क्षितिज होता
सार मिलन का तय करते
चन्द्र वलय-सा पुलकित हर्षित
चारू विनय कुसुम खिलते ।
मोहक प्रभा विहंगम तान
निशा हिमकर का प्रेम वितान
सरपट ढलता पहर पलक-सा
एक भूल नित-नित अज्ञान ।
तुम चित्र बना रंग भरती जाती
स्वप्नलोक की रचना जैसी
परम प्रासाद लोक में अविरल
धवल दिव्य प्रवंचना जैसी ।
हम धरा धाम के हैं वासी
कोई मधुर गीत ना गा पायें
आओ अनन्त में कल्पना का
एक नवल सुकोमल नीड़ बनायें ।
कौन जानता चंचल जीवन
किस बीहड़ में मोड़ेगा
कल की सांसें आज ही गिन लें
समय कहाँ कब छोड़ेगा ?
चंचल किरणें थिरक-थिरक
कुछ नाद मनोरम गा पायें
जिस राह चले हम दिवा-स्वप्न में
सुप्त मनोरथ जग जायें ।
हाँ! मन का हाला मतवाला
आज चाँद पेड़ से मिलने आया
कुछ वह विनोद में, मैं मुखरित
मिलकर चादर सिलने आया ।
हे मनुज! तुम्हारी रचना ने
कण-कण में मंगल गाया है
इह लोक व्यथा अब व्यर्थ न हो
घर मिलने कानन आया है।
चल, हमें भुलावा देकर ले चल
मौन रथों पर तम के पार
जहां मिलन की शाश्वत गाथा
गाता है सुंदर सुकुमार ।
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

Friday, May 06, 2016

चाँद! तुम तरल हो रहे हो

चाँद !
तुम रुई-सा मुलायम
और पानी-सा
तरल हो रहे हो
गीली मिट्टी जैसे
धीरे धीरे सरकना
सीख लिया है ।
उष्ण रातों में
मंद मीठी पछुआ वयार की नाईं
शीतल सिलवटी गालों पर
एक सुखद एहसास की
नजरें फेर देते हो ।
धुप का धुआं जैसे
दीपक की लौ से लिपटकर
अपना अस्तित्व बोध
खोने लगता है
मेरा मृदुल शुन्य
तुम्हारे विराट में
शनैः शनैः घुलने लगा है ।

तुमने  कोमलता, निर्भीकता 
पाताल की गहराई और
सागर का विस्तार कैसे पाया?
एक बात मुझे भी समझाओ (समझाओगे?)
फूलों की लालिमा-सी शर्म
जीवन की गहरी धुंध में भी
हँसते-हँसते वक़्त को 
कुरेदना,
अट्टहास करना,
बरसते बादल को एकटक
शांतचित्त कोने में छुपकर
निहारना
कहाँ से सीखा ?
शक्तिपुंज की तरह
चतुर्दिश सुख की
मखमली चादर फ़ैलाने का
गुण कहाँ से पाया ?

तुमको शायद समय ने 
स्त्रीत्व सीखा दिया 
और मैं ?
समय को पकड़ने की चाह में
कई हिस्सों में बंटता चला गया
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

Saturday, March 05, 2016

आँखों को कब अपना आसमां बनाता है धुआँ

हँस के जो बाँट दिया अपने कशमकश को
दुनिया बदलती गयी फिर घर के चराग से ।

कितना अजीब है मन्नू कि ये ग़ज़लें फ़क़ीर हैं
आसमां, तेरी जमीं पर बची अब ना जमीर है ।

क्यों न रंग दूँ तेरे चेहरे को सुर्ख, फागुन में
ऐ चाँद! कि तुझको ख़ुशी देकर पाया है ।

नज़रें चुराकर चुपके से फिर हवा घर में आ गयी
सोये आग को देखो अभी थपकी देकर जगा गयी।

कहो कि चराग जलते हैं मेरे घर से तेरे शहर तक 
ये तो आदमी है कि अंधेरों का शौक रखता है।

तुम्हारे शहर के लोग भी ताज को तरसते हैं
इस शहर का क्या, यहाँ ताज कभी बिकता नहीं।

कभी मिल गए तो खुशियों को तुम भी थोड़ी जमीं देना 
अभी उम्मीद की तपिश बाकी है इस फैले दयार में ।

तेरी आँखों का जादू है कि वो जब भी मिला बरस गया 
वरना आँखों को कब अपना आसमां बनाता है धुआँ ।
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

Monday, February 15, 2016

एक वो था जिसने जान दे दी

जीवन की विविध राह में
मेरे पांवों का तरंग
चट्टानों से टकराकर
झनझनाती लहरों की झाग में
अस्तित्व खोता भाव का कदम
आगे बढ़ता है
पर चकनाचूर होकर
उन लहरों की कतारों से
लौटती ध्वनि
भुला देता है वो पुराने निशान
जो धरोहर है विरासत की
और अब डूबने को है
बिन पतवार की नाव ।

अरे ! सोये हो आँखे मूंदकर
किस धुंध की तलाश में ?
ले गया तुम्हारी माँ का चीर
वो काला अजनवी
अपनी झोली में समेटकर ।
अब तो जागो
अब तो आओ
धूमिल विवेक
फिर से झकझोरकर
जागृत तो कर आओ ।
जिसने तुम्हारे ह्रदय-रन्ध्र में
दो बून्द लाल खून दिया
कफ़न को दो गज कपडा
और जलने के लिए
दो बांस जमीन
जिसके कलेजे पर कूदकर
सर के बाल सफ़ेद किये
उसी को तुमने गाली दे दी ?

हाय रे मानव !
तुम्हारी भी अजब कहानी है
 मरते हो तो आँखें मूंदकर
और मारते हो तो विद्रोह से ।
एक वो था जिसने जान दे दी
अपनी माँ के लिए ।
और एक तुम निकले
जिसने बेच दिया उसको
सिर्फ दो कौर मांस के लिए ?
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

Thursday, February 11, 2016

मुझे आज़ाद कर दो

लहरों के बीच बना 
अल्हड घरौंदे-सा
आज मन लगता है
किसी के लिए मस्ती 
किसी के लिए बस्ती 
बनकर घूमता हूँ
अपने ही शहर में !

सांसों की जद्दोजहद
सर्द रातों में बंद नाक-सी
लगती है !

बचपन में नंगे बदन 
उन्मत्त धूल में लोटना
और आँगन की देहरी पर
घंटों रोने जैसा रोज़
दिन बीतता है !

लो ! चुपके से बसंत आ गया !
कोयल की प्रणय कूक
और बगुले का जटिल मौन
अब मुझे नहीं रिझाता ।
मैं खोज रहा हूँ उम्मीद 
रेत में अकेले बैठकर
कल को हँसकर जीने के लिए !

मेरा क्या है ?
मैं तो किसी कंधे पर
अपनी गर्दन झुका लूंगा ।
मैं तो परेशान हूँ
तुम्हारे सजीव कल के लिए ।

तुम आओ
उठा ले जाओ
अपनी धरोहर
जिसको साल-दर-साल संभाला है
मैंने मन की पेटी में बंद करके ।
मुझे आज़ाद कर दो ।
अपनी सीमायें मुझे
फिर से लिखनी है
किसी जवान सैनिक की तरह !
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

Wednesday, February 10, 2016

नियति की दुविधा

समय के सम्मान ने
तुझे मौन मूर्ति से
चंचल गुड़िया बना दिया
और हम उसकी शिलाओं को
खरोंच कर भी अपना नाम
नहीं लिख पाये !

नियति की दुविधा तो देखो
कि नदी के दो किनारे
आज बात करते हैं,
हँसते-खिलखिलाते हैं,
मौन साधना भी करते हैं,
फिर जानी-पहचानी राह चल देते हैं !

कल इसकी फेनिल प्रवाह ने
किनारे का गाँव तबाह किया था
खेतों में रेत भर दिया था
सोना उगलने वाली मिटटी को
दलदल बना दिया था
और जीवन की मुमूर्ष अभिलाषा को
चुपचाप डुबो दिया था !

आज हम जीवन ज्वार के 
उस किनारे पर खड़े हैं
जहाँ से प्रदीपन मीनार की
मस्तूल साफ दिखाई देती है
पर कल की तस्वीर नहीं !

हम बसते जा रहे हैं
कभी इस गली, कभी उस शहर
कभी इधर, कभी उधर
कभी यहाँ, कभी वहां 
दिशाहीन परिंदों की माफिक !

अब जाने दो इन बातों को !
ये समय है ! 
न हमारा, न तुम्हारा
न काल का, न मलाल का
न जीत का, न हार का
न कल का, न आज का 
चलना ही इसकी मर्यादा है !

चलो मंदिर के घंटे को आज
साथ-साथ बजा आएं 
सोये मूर्ति को फिर से जगा आएं 
मस्जिद के अजान पर
सज्दे में सर नवायें
कल हम कहाँ होंगे, तुम कहाँ !

बिखरे शब्दों की दस्तूर ही
हमारी पहचान है 
किसी रंगमहल की दीवारों पर
हँसती रंगीन चित्रकारी जैसी
जिसपर कोई बेनाम चित्रकार
कल कुछ रंग उकेर आया था !
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

Tuesday, February 09, 2016

जाड़े की धूप

जाड़े की धूप पुराने प्रेमी जैसी हो गयी
छत के मुंडेरे पर इशारे से बुलाता है !

कभी गुमसुम, कभी गुनगुन, कभी आँखें दिखाता है
कभी रूठी बुआ-सी चादर लेकर सोने जाता है !

हम ढूंढते हैं फुर्सत में कहीं उसको रिझाने को
कभी आता, कभी जाता, कभी गुमनाम रहता है !

तुम्हारी मिटटी जैसी फितरत है, जिधर चाहो सरक जाओ
कभी घर में, कभी छत पर, कोई चेहरा लुभाता है !

आ जाओ प्रिये!  दोपहर है, घर में हम अकेले हैं
पता मेरे मोहल्ले का यहाँ हर जन बताता है !

सफर तेरा जुनूनी है, हम कहें तो क्या कहें
तेरा आना बहुत जरूरी है, पर जाना बहुत सताता है !
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

Friday, February 05, 2016

सरकती जिंदगी कहाँ पटकेगी अब नहीं मालूम

किस-किस नगर की राह से गुजरा हूँ तेरी तलाश में
इल्म कहाँ था कि मेरी साख-ए-किस्मत ऐसी होगी !

बिखरी फलक की चादरें यहाँ से धुंधली दिखती हैं
एक शम्मा तो जलाओ कि जमीं ही रोशन हो जाए !

आसमान के कतरों में आज धरती-सी बड़ी दरारें हैं
सूरज भी छुप के आदमी का घाव सहलाता रहा !

करें इनायत किसकी यहाँ, हर सख्श नशे में धुत्त है
खुद में खुदा मशरूफ है, हम फिक्र किसकी करें यहाँ !

जुबाँ चुप है, नजरें खामोश हैं, औ' बंदिशें नूर हो गयीं
हम कहें तो क्या कहें, अब सितारे ही बात करते हैं  !

तुम हो तो हम हैं, हम नहीं होते तो अच्छा था
परदे में  रह नहीं  सकते, अगर होते तो अच्छा था !

कसम इस होने का बयां मय्यसर भी नहीं होता
बहुत कुछ बोलने की भी कोई सजा होती तो अच्छा था  !

सरकती जिंदगी कहाँ पटकेगी अब नहीं मालूम
न हो मालूम तो अच्छा है, पता होता तो मुश्किल था !

चलो एक राग गाते हैं अब दुनियां को हँसाने का
वो भी हँसते, मैं भी हँसता, सब हँसते तो अच्छा था !
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

Thursday, February 04, 2016

कहाँ गए बचपन के वे दिन

कहाँ गए बचपन के वे दिन
कुत्ते बिल्ली तितली मोर
रवि-शशि से आँख मिचौली 
खग-मुर्गों का युगल भोर ।

जब बन्दर वाला आता था
कोई सुन्दर गीत सुनाता था
डमरू बजा-बजा बन्दर का 
मोहक नाच दिखता था ।

उनका डंडा, इनकी गिल्ली
एक किया सब बारी-बारी
छुप गए धीरे भाग खड़े हो
ढूंढ मरी अम्मा बेचारी ।


धूल उड़ाना, मौज मनाना
था केवल मस्ती का सार
वही आज़ादी फिर से आती
फिर से पड़ती कोमल मार ।

बड़े हुए हम, हुए सुशोभित
रजनीगंधा, द्रुमदल में
मान मिला, अपमान मिला
धरती और अम्बर तल में ।

कोई कहे तू ले लो बचपन
क्रय कर लूंगा 'नाम' से
बचपन का संग्राम भला है
यौवन के अरमान से ।

पैनी बुद्धि, मोटी शक्ति
धन दौलत सब पलना है
जिसे देख लो रो-रो कहता
आज नहीं कल जलना है ।

हाय ! पुराना बचपन भोला
लौट नहीं फिर आएगा
हड्डी-हड्डी तोड़-फोड़कर
अंत समय ले जायेगा ।

हंसकर आना, हंसकर जाना
अगर यहाँ हम सीख पाते
धरा नहीं यह स्वर्ग कहाता
गर हिल-मिल कर हम रह पाते ।

जब अंत समय आ जाता है
मानव पहले घबराता है
स्मृति जीवन की हो धूमिल
आँखें फिर तब मूंद जाता है ।
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

Tuesday, February 02, 2016

नदी के किनारे बैठा रेत का एक कण !

दीवार से टकराकर
लौटती घायल प्रतिध्वनि
हवा की तेज रफ़्तार में
अपना अर्थ स्वयं आत्मसात करके
नियति के दरवाजे पर दस्तक दे,
इंसानियत की आत्मा का जर्रा-जर्रा
सकते के आलम में थर्रा जाता है।

गहरी धुंध की चौड़ाई से
एक क्षीण, मद्धिम, पीली रोशनी
अपनी अस्मिता की सार्थकता के लिए
जगती के सामने आँखे फाड़कर
तिमिर का मौन भंग करता है,
आने वाले हरेक राहगीर को
अपने कल का इतिहास दिखाता है,
और कहता है--
मैं एक जीवंत संवेदना का
जागृत प्रतिरूप हूँ
जिसकी परछाई का स्वरुप टटोलना
अगर तुम्हे स्वीकार है तो
उसे देखो-- उफनती नदी के
एकांत किनारे पर बैठा
रेत का एक कण !
अपने अस्तित्व के लिए वह 
अकेले प्राणपण से जूझ रहा है ।
पहर भर बाद 
असीम जलसमाधी में विलीन होकर
उस अनंत सागर की एक
शाश्वत कहानी बन जाएगा !

जीवन इसी अनंत में बिखरी
पल-पल की मुखरित संवेदनाएं हैं
जिसका आकार सूक्ष्म से शुरू होकर
विराट की ही तो जलसमाधि है !
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा