Monday, February 15, 2016

एक वो था जिसने जान दे दी

जीवन की विविध राह में
मेरे पांवों का तरंग
चट्टानों से टकराकर
झनझनाती लहरों की झाग में
अस्तित्व खोता भाव का कदम
आगे बढ़ता है
पर चकनाचूर होकर
उन लहरों की कतारों से
लौटती ध्वनि
भुला देता है वो पुराने निशान
जो धरोहर है विरासत की
और अब डूबने को है
बिन पतवार की नाव ।

अरे ! सोये हो आँखे मूंदकर
किस धुंध की तलाश में ?
ले गया तुम्हारी माँ का चीर
वो काला अजनवी
अपनी झोली में समेटकर ।
अब तो जागो
अब तो आओ
धूमिल विवेक
फिर से झकझोरकर
जागृत तो कर आओ ।
जिसने तुम्हारे ह्रदय-रन्ध्र में
दो बून्द लाल खून दिया
कफ़न को दो गज कपडा
और जलने के लिए
दो बांस जमीन
जिसके कलेजे पर कूदकर
सर के बाल सफ़ेद किये
उसी को तुमने गाली दे दी ?

हाय रे मानव !
तुम्हारी भी अजब कहानी है
 मरते हो तो आँखें मूंदकर
और मारते हो तो विद्रोह से ।
एक वो था जिसने जान दे दी
अपनी माँ के लिए ।
और एक तुम निकले
जिसने बेच दिया उसको
सिर्फ दो कौर मांस के लिए ?
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

Thursday, February 11, 2016

मुझे आज़ाद कर दो

लहरों के बीच बना 
अल्हड घरौंदे-सा
आज मन लगता है
किसी के लिए मस्ती 
किसी के लिए बस्ती 
बनकर घूमता हूँ
अपने ही शहर में !

सांसों की जद्दोजहद
सर्द रातों में बंद नाक-सी
लगती है !

बचपन में नंगे बदन 
उन्मत्त धूल में लोटना
और आँगन की देहरी पर
घंटों रोने जैसा रोज़
दिन बीतता है !

लो ! चुपके से बसंत आ गया !
कोयल की प्रणय कूक
और बगुले का जटिल मौन
अब मुझे नहीं रिझाता ।
मैं खोज रहा हूँ उम्मीद 
रेत में अकेले बैठकर
कल को हँसकर जीने के लिए !

मेरा क्या है ?
मैं तो किसी कंधे पर
अपनी गर्दन झुका लूंगा ।
मैं तो परेशान हूँ
तुम्हारे सजीव कल के लिए ।

तुम आओ
उठा ले जाओ
अपनी धरोहर
जिसको साल-दर-साल संभाला है
मैंने मन की पेटी में बंद करके ।
मुझे आज़ाद कर दो ।
अपनी सीमायें मुझे
फिर से लिखनी है
किसी जवान सैनिक की तरह !
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

Wednesday, February 10, 2016

नियति की दुविधा

समय के सम्मान ने
तुझे मौन मूर्ति से
चंचल गुड़िया बना दिया
और हम उसकी शिलाओं को
खरोंच कर भी अपना नाम
नहीं लिख पाये !

नियति की दुविधा तो देखो
कि नदी के दो किनारे
आज बात करते हैं,
हँसते-खिलखिलाते हैं,
मौन साधना भी करते हैं,
फिर जानी-पहचानी राह चल देते हैं !

कल इसकी फेनिल प्रवाह ने
किनारे का गाँव तबाह किया था
खेतों में रेत भर दिया था
सोना उगलने वाली मिटटी को
दलदल बना दिया था
और जीवन की मुमूर्ष अभिलाषा को
चुपचाप डुबो दिया था !

आज हम जीवन ज्वार के 
उस किनारे पर खड़े हैं
जहाँ से प्रदीपन मीनार की
मस्तूल साफ दिखाई देती है
पर कल की तस्वीर नहीं !

हम बसते जा रहे हैं
कभी इस गली, कभी उस शहर
कभी इधर, कभी उधर
कभी यहाँ, कभी वहां 
दिशाहीन परिंदों की माफिक !

अब जाने दो इन बातों को !
ये समय है ! 
न हमारा, न तुम्हारा
न काल का, न मलाल का
न जीत का, न हार का
न कल का, न आज का 
चलना ही इसकी मर्यादा है !

चलो मंदिर के घंटे को आज
साथ-साथ बजा आएं 
सोये मूर्ति को फिर से जगा आएं 
मस्जिद के अजान पर
सज्दे में सर नवायें
कल हम कहाँ होंगे, तुम कहाँ !

बिखरे शब्दों की दस्तूर ही
हमारी पहचान है 
किसी रंगमहल की दीवारों पर
हँसती रंगीन चित्रकारी जैसी
जिसपर कोई बेनाम चित्रकार
कल कुछ रंग उकेर आया था !
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

Tuesday, February 09, 2016

जाड़े की धूप

जाड़े की धूप पुराने प्रेमी जैसी हो गयी
छत के मुंडेरे पर इशारे से बुलाता है !

कभी गुमसुम, कभी गुनगुन, कभी आँखें दिखाता है
कभी रूठी बुआ-सी चादर लेकर सोने जाता है !

हम ढूंढते हैं फुर्सत में कहीं उसको रिझाने को
कभी आता, कभी जाता, कभी गुमनाम रहता है !

तुम्हारी मिटटी जैसी फितरत है, जिधर चाहो सरक जाओ
कभी घर में, कभी छत पर, कोई चेहरा लुभाता है !

आ जाओ प्रिये!  दोपहर है, घर में हम अकेले हैं
पता मेरे मोहल्ले का यहाँ हर जन बताता है !

सफर तेरा जुनूनी है, हम कहें तो क्या कहें
तेरा आना बहुत जरूरी है, पर जाना बहुत सताता है !
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

Friday, February 05, 2016

सरकती जिंदगी कहाँ पटकेगी अब नहीं मालूम

किस-किस नगर की राह से गुजरा हूँ तेरी तलाश में
इल्म कहाँ था कि मेरी साख-ए-किस्मत ऐसी होगी !

बिखरी फलक की चादरें यहाँ से धुंधली दिखती हैं
एक शम्मा तो जलाओ कि जमीं ही रोशन हो जाए !

आसमान के कतरों में आज धरती-सी बड़ी दरारें हैं
सूरज भी छुप के आदमी का घाव सहलाता रहा !

करें इनायत किसकी यहाँ, हर सख्श नशे में धुत्त है
खुद में खुदा मशरूफ है, हम फिक्र किसकी करें यहाँ !

जुबाँ चुप है, नजरें खामोश हैं, औ' बंदिशें नूर हो गयीं
हम कहें तो क्या कहें, अब सितारे ही बात करते हैं  !

तुम हो तो हम हैं, हम नहीं होते तो अच्छा था
परदे में  रह नहीं  सकते, अगर होते तो अच्छा था !

कसम इस होने का बयां मय्यसर भी नहीं होता
बहुत कुछ बोलने की भी कोई सजा होती तो अच्छा था  !

सरकती जिंदगी कहाँ पटकेगी अब नहीं मालूम
न हो मालूम तो अच्छा है, पता होता तो मुश्किल था !

चलो एक राग गाते हैं अब दुनियां को हँसाने का
वो भी हँसते, मैं भी हँसता, सब हँसते तो अच्छा था !
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

Thursday, February 04, 2016

कहाँ गए बचपन के वे दिन

कहाँ गए बचपन के वे दिन
कुत्ते बिल्ली तितली मोर
रवि-शशि से आँख मिचौली 
खग-मुर्गों का युगल भोर ।

जब बन्दर वाला आता था
कोई सुन्दर गीत सुनाता था
डमरू बजा-बजा बन्दर का 
मोहक नाच दिखता था ।

उनका डंडा, इनकी गिल्ली
एक किया सब बारी-बारी
छुप गए धीरे भाग खड़े हो
ढूंढ मरी अम्मा बेचारी ।


धूल उड़ाना, मौज मनाना
था केवल मस्ती का सार
वही आज़ादी फिर से आती
फिर से पड़ती कोमल मार ।

बड़े हुए हम, हुए सुशोभित
रजनीगंधा, द्रुमदल में
मान मिला, अपमान मिला
धरती और अम्बर तल में ।

कोई कहे तू ले लो बचपन
क्रय कर लूंगा 'नाम' से
बचपन का संग्राम भला है
यौवन के अरमान से ।

पैनी बुद्धि, मोटी शक्ति
धन दौलत सब पलना है
जिसे देख लो रो-रो कहता
आज नहीं कल जलना है ।

हाय ! पुराना बचपन भोला
लौट नहीं फिर आएगा
हड्डी-हड्डी तोड़-फोड़कर
अंत समय ले जायेगा ।

हंसकर आना, हंसकर जाना
अगर यहाँ हम सीख पाते
धरा नहीं यह स्वर्ग कहाता
गर हिल-मिल कर हम रह पाते ।

जब अंत समय आ जाता है
मानव पहले घबराता है
स्मृति जीवन की हो धूमिल
आँखें फिर तब मूंद जाता है ।
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

Tuesday, February 02, 2016

नदी के किनारे बैठा रेत का एक कण !

दीवार से टकराकर
लौटती घायल प्रतिध्वनि
हवा की तेज रफ़्तार में
अपना अर्थ स्वयं आत्मसात करके
नियति के दरवाजे पर दस्तक दे,
इंसानियत की आत्मा का जर्रा-जर्रा
सकते के आलम में थर्रा जाता है।

गहरी धुंध की चौड़ाई से
एक क्षीण, मद्धिम, पीली रोशनी
अपनी अस्मिता की सार्थकता के लिए
जगती के सामने आँखे फाड़कर
तिमिर का मौन भंग करता है,
आने वाले हरेक राहगीर को
अपने कल का इतिहास दिखाता है,
और कहता है--
मैं एक जीवंत संवेदना का
जागृत प्रतिरूप हूँ
जिसकी परछाई का स्वरुप टटोलना
अगर तुम्हे स्वीकार है तो
उसे देखो-- उफनती नदी के
एकांत किनारे पर बैठा
रेत का एक कण !
अपने अस्तित्व के लिए वह 
अकेले प्राणपण से जूझ रहा है ।
पहर भर बाद 
असीम जलसमाधी में विलीन होकर
उस अनंत सागर की एक
शाश्वत कहानी बन जाएगा !

जीवन इसी अनंत में बिखरी
पल-पल की मुखरित संवेदनाएं हैं
जिसका आकार सूक्ष्म से शुरू होकर
विराट की ही तो जलसमाधि है !
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा