Thursday, February 11, 2016

मुझे आज़ाद कर दो

लहरों के बीच बना 
अल्हड घरौंदे-सा
आज मन लगता है
किसी के लिए मस्ती 
किसी के लिए बस्ती 
बनकर घूमता हूँ
अपने ही शहर में !

सांसों की जद्दोजहद
सर्द रातों में बंद नाक-सी
लगती है !

बचपन में नंगे बदन 
उन्मत्त धूल में लोटना
और आँगन की देहरी पर
घंटों रोने जैसा रोज़
दिन बीतता है !

लो ! चुपके से बसंत आ गया !
कोयल की प्रणय कूक
और बगुले का जटिल मौन
अब मुझे नहीं रिझाता ।
मैं खोज रहा हूँ उम्मीद 
रेत में अकेले बैठकर
कल को हँसकर जीने के लिए !

मेरा क्या है ?
मैं तो किसी कंधे पर
अपनी गर्दन झुका लूंगा ।
मैं तो परेशान हूँ
तुम्हारे सजीव कल के लिए ।

तुम आओ
उठा ले जाओ
अपनी धरोहर
जिसको साल-दर-साल संभाला है
मैंने मन की पेटी में बंद करके ।
मुझे आज़ाद कर दो ।
अपनी सीमायें मुझे
फिर से लिखनी है
किसी जवान सैनिक की तरह !
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

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M K Mishra