हँस के जो बाँट दिया अपने कशमकश को
दुनिया बदलती गयी फिर घर के चराग से ।
कितना अजीब है मन्नू कि ये ग़ज़लें फ़क़ीर हैं
आसमां, तेरी जमीं पर बची अब ना जमीर है ।
क्यों न रंग दूँ तेरे चेहरे को सुर्ख, फागुन में
ऐ चाँद! कि तुझको ख़ुशी देकर पाया है ।
नज़रें चुराकर चुपके से फिर हवा घर में आ गयी
सोये आग को देखो अभी थपकी देकर जगा गयी।
कहो कि चराग जलते हैं मेरे घर से तेरे शहर तक
ये तो आदमी है कि अंधेरों का शौक रखता है।
तुम्हारे शहर के लोग भी ताज को तरसते हैं
इस शहर का क्या, यहाँ ताज कभी बिकता नहीं।
कभी मिल गए तो खुशियों को तुम भी थोड़ी जमीं देना
अभी उम्मीद की तपिश बाकी है इस फैले दयार में ।
तेरी आँखों का जादू है कि वो जब भी मिला बरस गया
वरना आँखों को कब अपना आसमां बनाता है धुआँ ।
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा
दुनिया बदलती गयी फिर घर के चराग से ।
कितना अजीब है मन्नू कि ये ग़ज़लें फ़क़ीर हैं
आसमां, तेरी जमीं पर बची अब ना जमीर है ।
क्यों न रंग दूँ तेरे चेहरे को सुर्ख, फागुन में
ऐ चाँद! कि तुझको ख़ुशी देकर पाया है ।
नज़रें चुराकर चुपके से फिर हवा घर में आ गयी
सोये आग को देखो अभी थपकी देकर जगा गयी।
कहो कि चराग जलते हैं मेरे घर से तेरे शहर तक
ये तो आदमी है कि अंधेरों का शौक रखता है।
तुम्हारे शहर के लोग भी ताज को तरसते हैं
इस शहर का क्या, यहाँ ताज कभी बिकता नहीं।
कभी मिल गए तो खुशियों को तुम भी थोड़ी जमीं देना
अभी उम्मीद की तपिश बाकी है इस फैले दयार में ।
तेरी आँखों का जादू है कि वो जब भी मिला बरस गया
वरना आँखों को कब अपना आसमां बनाता है धुआँ ।
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा