कहाँ सज्दे में सर झुके तुम्ही कह दो तो अच्छा है
मेरी आंखे तो झुकती हैं हर नम आंखों को देखकर।
तेरे रूखसार की रोज बंदगी मेरे शय में अब भी शामिल है
जिस हाल में हों मुस्कराया तेरी नूर-ए-रहमत देखकर ।
बहुत ही मुश्किल है जनाजा उठाकर फिर सुला देना
आसां नहीं होता दामन बचाना मज़हबी हंसी देखकर ।
क्या गुजरेगी उन फकीरों पर हमको नशे में देखकर ।
बिखर के जीना औ' जी कर बिखरना आसां नहीं है मन्नू
तंज कसते हैं बेवजह लोग मुफलिसी रूखाई देखकर ।
समेट लाता हूँ अपने दामन में उधार की कुछ बची नज्में
कल हों न हों कह नहीं सकते हालात-ए-मंज़र देखकर ।
बहुत जी लिया यहाँ रफ़्तार-ए-नब्ज गिन-गिन कर
कि मर भी नहीं सकते खुदाया आहट तेरी देखकर ।
मिला है खाक में नफरत अदब से दरिया और दरख्तों का
साहिल को किनारे जाने दो लहरों का कलंदर देखकर ।
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा
बहुत जी लिया यहाँ रफ़्तार-ए-नब्ज गिन-गिन कर
कि मर भी नहीं सकते खुदाया आहट तेरी देखकर ।
मिला है खाक में नफरत अदब से दरिया और दरख्तों का
साहिल को किनारे जाने दो लहरों का कलंदर देखकर ।
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा