Monday, June 06, 2016

आज स्थिर है शैव बनकर

तपती दोपहरी में
बादल के किसी कोने से
स्पर्श की स्पंदित बूँदे
अनायास ही
रोम रोम गीला करता है।
उच्छवास
तरंगित जीवन गाथा का
एकांत गीत से
झंकृत है।
तन का मोह
मन की माया
सब तुम्हारी
दहलीज पर
रखकर खाली हाथ
लौट आया।
इसे सम्मान से
समेटकर कहीं
बंद कोठरी मे
कल के लिए
सहेज लेना
जीवंतता की
धरोहर होगी।
कौन जानता है?
आज का बीज
कल अंकुरित होकर
वृक्ष न बन जाय !
कौन जानता है?
सुवासित कन्दराओं में
पत्थरो का सीना चीरकर
किंचित कोई फूल
हँस न दे !
आँख की बूँदों का भार
नदी में बहती रेत है;
तल में चुपचाप
सरकती जाती है।
मौन तृष्णा भटक कर
संवाद में अर्थ की
परिभाषा तलाशने
लगती है।
हम कल की तस्वीरों में
रंग भर रहे हैं;
आज स्थिर हैं
शैव बनकर
शीतल शिलाओं पर
गहराती संवेदनाओं में
धर्म का मर्म
समेटे हुए।
..........रचना © मनोज कुमार मिश्रा

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M K Mishra